आखिर क्या है नागरिकता संशोधन बिल? जिस पर मचा है बवाल
नागरिकता कानून, 1955 के मुताबिक अवैध प्रवासियों को भारत की नागरिकता नहीं मिल सकती है। इस कानून के तहत उन लोगों को अवैध प्रवासी माना गया है जो भारत में वैध यात्रा दस्तावेज जैसे पासपोर्ट और वीजा के बगैर घुस आए हों या फिर वैध दस्तावेज के साथ तो भारत में आए हों लेकिन उसमें दी गई अवधि से ज्यादा समय तक यहां रुक जाएं।
नई दिल्ली: देश में घुसपैठियों का मामला काफी समय से चर्चा का विषय है। घुसपैठियों को देश से बाहर करने की दिशा में सबसे पहले असम में एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस यानी एनआरसी पर काम हुआ। नागरिकता संशोधन विधेयक भी इसी कवायद का हिस्सा है, जिसमें भारत के कुछ पड़ोसी देशों से आए धार्मिक समूहों के लिए नागरिकता के नियम को आसान बनाने का प्रावधान है। नागरिकता संशोधिन बिल के पास होने के बाद एनआरसी इसका हिस्सा बन जाएगा। इसके बाद एनआरसी की कवायद नागरिकता कानून के तहत होगी और उसी आधार पर वैध-अवैध नागरिकों की पहचान की जाएगी।
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-- नागरिकता संशोधन विधेयक में नागरिकता कानून, 1955 में संशोधन का प्रस्ताव है। इसमें अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्मों के शरणार्थियों के लिए नागरिकता के नियमों को आसान बनाना है। मौजूदा समय में किसी व्यक्ति को भारत की नागरिकता हासिल करने के लिए कम से कम पिछले 11 साल से यहां रहना अनिवार्य है। इस नियम को आसान बनाकर नागरिकता हासिल करने की अवधि को एक साल से लेकर 6 साल करना है यानी इन तीनों देशों के छह धर्मों के बीते एक से छह सालों में भारत आकर बसे लोगों को नागरिकता मिल सकेगी। यानी भारत के तीन पड़ोसी मुस्लिम बहुसंख्यक देशों से आए गैर मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देने के नियम को आसान बनाना है।
अवैध प्रवासियों को भारत की नागरिकता नहीं मिल सकती है
-- नागरिकता कानून, 1955 के मुताबिक अवैध प्रवासियों को भारत की नागरिकता नहीं मिल सकती है। इस कानून के तहत उन लोगों को अवैध प्रवासी माना गया है जो भारत में वैध यात्रा दस्तावेज जैसे पासपोर्ट और वीजा के बगैर घुस आए हों या फिर वैध दस्तावेज के साथ तो भारत में आए हों लेकिन उसमें दी गई अवधि से ज्यादा समय तक यहां रुक जाएं।
-- अवैध प्रवासियों को या तो जेल में रखा जा सकता है या फिर वापस उनके देश भेजा जा सकता है। लेकिन केंद्र सरकार ने साल 2015 और 2016 में कानूनों में संशोधन करके अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्म के लोगों को छूट दे दी है। इन धर्मों से संबंध रखने वाले लोग अगर भारत में वैध दस्तावेजों के बगैर भी रहते हैं तो उनको न तो जेल में डाला जा सकता है और न उनको निर्वासित किया जा सकता है। यह छूट उन लोगों को प्राप्त है जो 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले भारत पहुंचे हैं। इन्हीं धार्मिक समूहों से संबंध रखने वाले लोगों को भारत की नागरिकता का पात्र बनाने के लिए नागरिकता कानून-1955 में संशोधन के लिए नागरिकता संशोधन विधेयक-2016 संसद में पेश किया गया था।
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-- विपक्ष का सबसे बड़ा विरोध यह है कि इसमें खासतौर पर मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया गया है। उनका तर्क है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, जो समानता के अधिकार की बात करता है। पूर्वोत्तर क्षेत्र में एक बड़े वर्ग का कहना है कि अगर नागरिकता संशोधन विधेयक को लागू किया जाता है तो पूर्वोत्तर के मूल लोगों के सामने पहचान और आजीविका का संकट पैदा हो जाएगा।
असम के इतिहास से जुड़ी हैं एनआरसी की जड़ें
असम देश का इकलौता राज्य है, जहां राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी बनाया गया है। दरअसल एनआरसी वो प्रक्रिया है जिससे देश में गैर-कानूनी तौर पर रह विदेशी लोगों को खोजने की को
शिश की जाती है। असम में आजादी के बाद 1951 में पहली बार नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन बना था।
-- 1905 में जब अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन किया, तब पूर्वी बंगाल और असम के रूप में एक नया प्रांत बनाया गया। इसमें असम को पूर्वी बंगाल से जोड़ा गया था। जब देश का बंटवारा हुआ तो ये डर पैदा हो गया था कि कहीं इसे पूर्वी पाकिस्तान के साथ जोडक़र भारत से अलग न कर दिया जाए। इस मसले पर गोपीनाथ बोर्डोली की अगुवाई में असम विद्रोह शुरू हुआ और असम अपनी रक्षा करने में सफल रहा। 1950 में असम देश का एक राज्य बना।
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-- 1951 की जनगणना के बाद असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन तैयार हुआ था और इसमें असम के बाशिंदों को शामिल किया गया। इस रजिस्टर की वजह ये थी कि अंग्रेजों के जमाने में चाय बागानों में काम करने और खाली पड़ी जमीन पर खेती करने के लिए बिहार और बंगाल के लोग असम जाते रहते थे। स्थानीय लोगों का एक विरोध बाहरी लोगों से बना रहता था। आजादी के बाद भी तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और बाद के बांग्लादेश से असम में लोगों के अवैध तरीके से आने का सिलसिला जारी रहा। जिसे लेकर थोड़ी बहुत आवाज उठती रही।
बांग्लादेश में भाषा विवाद को लेकर आंतरिक संघर्ष शुरू हो गया
-- १९७१ में पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश में भाषा विवाद को लेकर आंतरिक संघर्ष शुरू हो गया। परिस्थितियां इतनी हिंसक हो गई कि वहां रहने वाले हिंदू और मुस्लिम दोनों ही तबकों की एक बड़ी आबादी ने भारत का रुख किया। जब पाकिस्तानी सेना ने दमनकारी कार्रवाई शुरू की तो करीब 10 लाख लोगों ने बांग्लादेश सीमा पारकर असम में शरण ली। 16 दिसंबर 1971 को जब बांग्लादेश को एक स्वतंत्र देश घोषित कर दिया गया, उसके बाद बहुत सारे लोग अपने वतन लौट गए, लेकिन लाखों लोग असम में ही रुक गए। 1971 के बाद भी बड़े पैमाने पर बांग्लादेशियों का असम में आना जारी रहा।
लोग सडक़ों पर उतर गए
-- 1978 के आसपास यहां असमिया के मसले को लेकर एक शक्तिशाली आंदोलन का जन्म हुआ। इसी बीच असम के मंगलदोई लोकसभा क्षेत्र के सांसद हीरा लाल पटवारी का निधन हो गया। इसके बाद वहां उपचुनाव की घोषणा हुई। इस दौरान चुनाव अधिकारी ने पाया कि मतदाताओं की संख्या अचानक बढ़ गई है। माना गया कि बाहरी लोगों, विशेष रूप से बांग्लादेशियों के आने के कारण ही ऐसा हुआ है। इसका काफी विरोध हुआ लेकिन सरकार ने इन सारे लोगों को वोटर लिस्ट में शामिल कर लिया। इससे आक्रोश फैल गया और लोग सडक़ों पर उतर गए। एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया जिसके नेताओं ने दावा किया कि राज्य की जनसंख्या का 31 से 34 प्रतिशत हिस्सा बाहर से आए लोगों का है। उन्होंने केंद्र सरकार से मांग की कि बाहरी लोगों की पहचान करके उनका नाम वोटर लिस्ट से हटाया जाए। जब तक ऐसा नहीं होता है, असम में कोई चुनाव न करवाया जाए। 1961 के बाद राज्य में जो भी लोग आए हैं, उन्हें उनके मूल राज्य में वापस भेज दिया जाए।
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-- 1983 में जब केंद्र सरकार ने असम में विधानसभा चुनाव करवाने का फैसला लिया, तो आंदोलन से जुड़े संगठनों ने इसका बहिष्कार किया। राज्य में जबरदस्त हिंसा हुई जिसमें तीन हजार से भी ज्यादा लोग मारे गए। इस हिंसा में असम के मोरीगांव कस्बे के नेल्ली में बांग्लाभाषी मुसलमानों के दर्जनों गांव को घेर लिया गया और दो हजार से अधिक लोगों को मार दिया गया।
पूर्ण नागरिकता और वोट देने का अधिकार देने का फैसला किया गया
-- 15 अगस्त 1985 को केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार और असम आंदोलन के नेताओं के बीच समझौता हुआ, जिसे असम समझौते के नाम से जाना गया। इसके तहत 1951 से 1961 के बीच आये सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट देने का अधिकार देने का फैसला किया गया। तय किया कि जो लोग 1971 के बाद असम में आये थे, उन्हें वापस भेज दिया जाएगा। १961 से 1971 के बीच आने वाले लोगों को वोट का अधिकार नहीं दिया गया, लेकिन उन्हें नागरिकता के अन्य सभी अधिकार दिए गए।
-- 1999 में केंद्र की तत्कालीन भाजपा सरकार ने असम समझौते की समीक्षा का काम शुरू किया।
असम समझौते के तहत एनआरसी को अपडेट करना चाहिए
-- 17 नवंबर 1999 को केंद्र सरकार ने तय किया कि असम समझौते के तहत एनआरसी को अपडेट करना चाहिए। हालांकि यह पहल ठंडे बस्ते में चली गई। इसके बाद 5 मई 2005 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फैसला लिया कि एनआरसी को अपडेट किया जाना चाहिए। और इसकी प्रक्रिया शुरू हुई। लेकिन राज्य के कुछ हिस्सों में हिंसा के बाद यह रोक दिया गया।
-- 2013 में असम पब्लिक वर्क नाम के एनजीओ सहित कई अन्य संगठनों ने इस मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की।
-- 2015 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और निगरानी में यह काम शुरू हुआ और 2018 जुलाई में फाइनल ड्राफ्ट पेश किया गया।