Mission 2024: लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी एकता के पास नहीं पीएम मोदी की काट, समझिए इस खास रिपोर्ट में पूरी गणित
Mission 2024: वैसे तो किसी भी बदलाव के लिए जब एकता बनती है तो पक्षों को दल मिलने से पहले दिल मिलाने चाहिए। एक दूसरे के समर्थन होना चाहिए तभी बदलाव संभाव है। लेकिन नरेंद्र मोदी को पीएम पद से हटाने के लिए विपक्ष जो कर रहा ये संदेहास्पद है।
Mission 2024: कांग्रेस के बैनर पर केजरीवाल की फोटो। ममता व वाम पंथ का साझा मंच। ऐसे तमाम विरोधाभासी व अभूतपूर्व दृश्य बिहार की राजधानी पटना में बीते तेईस जून को देखने को मिले। गैर भाजपाई दलों ने एकता का बिगुल फूंका। इनका मकसद सरकार बनाना नहीं, मोदी हटाना है। ऐसा एक प्रयास छयालिस साल पहले भी भारतीय लोकतंत्र में हुआ था। पर उस प्रयास की अगुवाई जिस जय प्रकाश नारायण ने की थी, उन्हें मंत्री, प्रधानमंत्री कुछ नहीं बनना था। अभी जिस एकता की शुरुआत हो रही है उसके सभी नेता प्रधानमंत्री की ख्वाहिश पाले बैठे हैं।
हालाँकि यह लड़ाई वे चुनावी नतीजे आने के बाद भी लड़ने के लिए खुद को तैयार कर सकते हैं। पर देखने की जरूरत यह है कि क्या मोदी की लोकप्रियता व भाजपा की सक्रियता का मुकाबला कर पायेंगे। देखा जाये तो जब ये विपक्षी एकता का बिगुल बजा रहे हैं, तब भाजपा अपने नेताओं के देश व्यापी दौरे का एक चरण पूरा कर चुकी है। फिर भी विपक्ष को मोदी पराजय की उम्मीद दिखना लाजिमी है। क्योंकि अगर थोड़ा निर्मोही होकर भाजपा का मूल्यांकन करें तो केवल चार राज्यों- गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और असम में ही भाजपा की सरकार है। भाजपा की राज्य इकाइयाँ और राज्य के नेता अपनी छवि बचाने या वोट बैंक बना पाने में सफल नहीं दिखते हैं। 2014 व 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो भाजपा को क्रमशः 31.34 ( 17,16,60,230) व 37.99 ( 22,90,76,879) फीसदी वोट ही मिले थे। बाकी सभी वोट विपक्ष के पास थे। विपक्षी बँटवारे ने ही भाजपा को सरकार बनाने का मौका दिया।
विधानसभा चुनाव में भाजपा की उम्मीद!
लोकसभा चुनाव से पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, मणिपुर, आंध्र प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने हैं। इनमें राजस्थान को छोड़ कहीं भी आज की तारीख में भाजपा की उम्मीद देखना बेमानी होगा। इसके चलते भाजपा नेता व कार्यकर्ता पराजित मनः स्थिति में चुनाव में उतरेगा। भाजपा की हवा खराब हो चुकी होगी। अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को निरंतर चुनावी मूड व मोड में रखे जाने के चलते वे चुनाव तक थके हारे होंगे।
नीतीश कुमार ने भाजपा के तोड़ फोड़ के राजनीति को मात दी। नीतीश अटल के साथ भी काम कर चुके हैं। ऐसे में पूर्व में भाजपा के साथ रहे दलों से बात करने में उनको सहूलियत होगी। राजनीति में बिहार को प्रयोगशाला माना जाना जाता है। 1917 में महात्मा गांधी ने चंपारण सत्याग्रह की शुरूआत की थी। गांधी को राष्ट्रव्यापी पहचान मिली। 1942 का भारत छोडो आंदोलन, जेपी का छात्र आंदोलन, मंडल आंदोलन, कमंडल यात्रा सब का रिश्ता सीधे बिहार से भी जुड़ता है। ऐसे में इतिहास व टोटकों के लिहाज से भी विपक्ष को हसीन सपने देखने का हक बनता है।
मोदी हटाओ तो किसको लाओ?
देश की पॉलिटिक्स में बिहार और यूपी सबसे उर्वर जगहें हैं। इन दोनों राज्यों के प्रभावशाली नेता बैठक में रहे। 15 दलों के दिग्गजों ने तय किया कि अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ विपक्ष का सिंगल प्रत्याशी खड़ा किया जाएगा। ऐसी एकजुटता इंदिरा गांधी के खिलाफ ही देखी गई थी जब 6 पार्टियों ने जनता पार्टी बनाई थी। उस समय जनता मोर्चा, कांग्रेस ओ, सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय लोक दल, जनसंघ और कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी एक साथ आये थे।
सवाल यह अनुत्तरित रह जाता है कि मोदी हटाओ तो लाओ किसको? दरअसल नरेंद्र मोदी का कद इतना बढ़ चुका है कि पूरे भारत के छोटे बड़े दलों में उनके आसपास तक का कोई नेता कोई व्यक्तित्व है ही नहीं। विपक्षी दल और उनके छत्रप यह बखूबी जानते हैं। उनको पता है कि तमाम टोटकों, उपायों के बावजूद मोदी के लेवल को छू पाना मुश्किल ही नहीं फिलवक्त असंभव है। इसीलिए तमाम गठबंधनों, महागठबंधनों के बावजूद एकल नेता का नाम पेश नहीं किया जा सका है।
रहा इंदिरा गांधी के खिलाफ विपक्षियों के एकजुट होने का सवाल तो सफलता का राज विपक्षी एकजुटता नहीं बल्कि इमरजेंसी का जनाक्रोश था। अभी ऐसी कोई स्थिति नहीं है। जनाक्रोश तो दूर की बात है। राज्यों के चुनाव अलग बात हैं। सो हिमाचल, कर्नाटक, दिल्ली, पंजाब आदि की तुलना लोकसभा चुनाव से नहीं की जानी चाहिए।
लोकसभा में सीटों की गुणा-गणित
वन अगेंस्ट वन के फार्मूले से भाजपा समेत एनडीए को करीब 350 सीटों पर कड़ी टक्कर का सामना करना होगा। जिन राज्यों के प्रमुख नेताओं की इस बैठक में भागीदारी रही, उनमें पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, बिहार, झारखंड, पंजाब, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश व दिल्ली को मिलाकर लोकसभा की कुल 283 सीटें हैं, जबकि कांग्रेस शासित चार राज्यों में 68 सीटें हैं। वर्तमान में इनमें से 165 पर भाजपा तथा 128 पर विपक्षी पार्टियों के सांसद हैं जबकि बाकी सीटें उन दलों के पास हैं, जो इस मेगागठबंधन का हिस्सा नहीं हैं।
पटना बैठक में शामिल हुए क्षत्रपों के राज्यों के पास लोकसभा की 90 सीटें हैं। इनमें बिहार में जेडीयू के पास 16, पश्चिम बंगाल में टीएमसी के पास 23, महाराष्ट्र में शिवसेना (उद्धव) के पास 18 व एनसीपी के पास चार, तमिलनाडु में डीएमके के पास 23, पंजाब व दिल्ली में आप के पास दो, जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस के पास तीन तथा झारखंड में जेएमएम के पास एक सीट है।
2019 के लोकसभा चुनाव के मुताबिक 185 सीटें ऐसी हैं, जहां भाजपा का मुकाबला क्षेत्रीय दलों से था। वहीं, 97 सीटें ऐसी हैं जहां क्षेत्रीय दल ही नंबर एक या नंबर दो पर थे। यहां भाजपा या कांग्रेस तीसरे या चैथे नंबर पर थी। इनमें 43 सीटों पर विपक्ष काबिज है ही तो इनके एकजुट लड़ने की स्थिति में शेष 54 सीटों पर भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है वहीं, 71 सीटों पर कांग्रेस व क्षेत्रीय दल आमने-सामने थे। जबकि 190 सीटों पर बीजेपी व कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला था। अभी इनमें से 175 पर भाजपा का कब्जा है।
विपक्षी दल एक साथ आये तो हैं लेकिन सीट बंटवारे के फार्मूले पर दोनों कितने सहमत होंगे, यह कहना मुश्किल है। सब छोटे छोटे दलों की अपनी दुकानें हैं। जातीय गणित हैं, स्वार्थ हैं। ऐसे में कौन किसको देखेगा। किसी अन्य के प्रभुत्व व रणनीति को वे भला कैसे स्वीकार करेंगे। हाँ, यह जरूर है कि इस कुनबे में एक को छोड़ कोई ऐसा नेता नहीं है, जिसके रिश्ते भ्रष्टाचार के किसी न किसी कांड से न जुड़े हों। यह एकजुटता का अकाट्य तर्क हो सकता है। पर कल तक जमीन पर अपने कार्यकर्ताओं को एक दूसरे के खिलाफ मल्ल युद्ध लड़वा रहे इन नेताओं की बात कार्यकर्ता कितना मानेंगे, यही यक्ष प्रश्न है।
(लेखक पत्रकार हैं।)