बंटवारे के 73 साल: अबतक नहीं भरे जख्म, याद कर कांप जाती है रूह
यहां आज भी कुछ ऐसी इमारतें अपना वजूद बचाए हुए हैं जिनमें कभी वो लोग रहा करते थे। जो आज मजबह के आधार पर बने नए मुल्क पाकिस्तान में जा कर बस गए हैं।
दुर्गेश पार्थ सारथी
अम्रतसर: 5 अगस्त 1947 ! यह वह घड़ी थी जब देश को पूर्ण रूप से अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति मिली थी। लेकिन इसके साथ ही वह जख्म भी मिला जिसके दर्द से हम आज भी कराह रहे हैं। यह जख्म है मुल्क के बंटवारे का जो धर्म के आधार पर किया गया था। इस बटवारे को ना तो तब सही ठहरया गया था और ना ही आज इसे जाय कहा जा सकता है। यह हम नहीं कह रहे हैं।
बल्कि, ये शब्द उन लोगों के हैं जिन्होंने मुल्क की आजादी के जश्न के साथ-साथ मजहबी उन्माद और दंश झेला है और इसे देखा है। बेशक, भारत के पश्चिमी छोर से विस्थापित हो कर पाकिस्तान बनने के बाद भारत आए। कुछ यही हाल सरहद के इस पार भी रहा। जो यहां सबकुछ छोड़ कर एक नए मुल्क पाकिस्तान चले गए। इस विभाजन का दर्द, कत्ल-ओ-गारद पंजाब और बंगाल ने बहुत करीब से देखा और झेला है।
1947 से पहले हिंदू-मुस्लमान में नहीं था कोई भेद
आज हम पंजाब के इसी सरहदी जिला अमृतसर के कुछ ऐसे लोगों की दर्दभरी दास्तान बताने जा रहे हैं जिन्हों ने मुल्क के आजाद होने का जश्न भी मनाया तो विस्थापन दर्द भी झेला। सबसे ज्यादा शरणार्थी कैंप भी अमृतसर में ही बनाए गए थे। पाश्चिमी पंजाब (अब पाकिस्तान) से आए लोग भी इसी सरहदी जिलों (अमृतसर, तरनतारन और गुरदासपुर) में बसे हैं। यहां आज भी कुछ ऐसी इमारतें अपना वजूद बचाए हुए हैं जिनमें कभी वो लोग रहा करते थे। जो आज मजबह के आधार पर बने नए मुल्क पाकिस्तान में जा कर बस गए हैं।
बंटवारे के बाद वीरान रहीं इमारतों में या तो उधर (अब पाकिस्तान) से आए लोग रह रहे हैं या उन इबातदगाहों का इस्तेमाल मंदिर या गुरुघर के रूप में किया जा रहा है।यानी सात दशक बाद भी उनकी पवित्रता को कायम रखा गया है। पंजाब की सियासत में एक जाना पहचान नाम है प्रो दरबारी लाल शार्म का। प्रखर कांग्रेसी, अमृतसर सेंट्रल से कई बार विधायक और पूर्व डिप्टी स्पीकर रहे प्रो: दरबारी लाल का परिवार भी 1947 में देश विभाजन के बाद पश्चिमी पंजाब के जिला गुजरात से अमृतसर चला आया था।
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प्रो लाल कहते हैं कि उनका जन्म अविभाजित भारत के जिला गुजरात के गांव गोलेकी में हुआ था। 1945 में उनके वालिद ने गांव के मदरसे में दाखिला दिलवा दिया। दरबारी लाल के मुताबिक 1947 से पहले हिंदू कौन मुस्लमान कौन यह पता नहीं था। हर कोई एक दूसरे के दुख तकलीफ में शामिल होता था। लेकिन मजहब के नाम पर जिन्ना ने हिंदू -मुस्लमान के बीच ऐसी खाई खोदी कि यह भरने की बजाय और गहरी होती जा रही है।
गुजरात से आया था हमारा परिवार
प्रो दरबारी लाल कहते हैं कि जब देश का बंटवारा हुआ था तो उस वखत उनकी उम्र को कोई दस साल रही होगी। हमारा परिवार भी अविभाजित पंजाब के जिला गुजरात से अमृतसर आया था। उन्हें वो दिन आज भी याद है। जब पाकिस्तान से आने वाली रेलगाडि़यां लाशों से भरी होती थी। मजबही उन्माद तो इतना कि उसे याद कर आज सिहर पैदा हो जाती है। वे कहते हैं कि 1946 में ही भारत पाकिस्तान की मांग जोर पड़ने लगी थी। उस टाइम गांवों में किसी-किसी के पास रेडियो होता था। अखबार ऊर्दू में आते थे। 15 अगस्त को मुल्क के आजाद होने की खबर मिली थी। इससे गांवों खुशी का माहौल था। हर कोई खुश था कि अंग्रेज चले जाएंगे।
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इसी बीच नया मुल्क पाकिस्तान बनने की खबर आई। यह भी सुनने में आया कि यहां केवल मुस्लमान ही रहेंगे। हिंदुओं के लिए हिदुस्तान है। प्रोफेसर दरबारी लाल कहते हैं कि गांव में हमारी जमीन बहुत थी। अपनी हवेली थी। दो शेलर थीं और अच्छा खासा कारोबार था। पाकिस्तान बनने की घोषणा हो चुकी थी। हमारा परिवार इसी असमंजस में था कि पुरखों की माटी को छोड़ कर सरहद के उसर पार कैसे जाया जाए। गांव में हिंदू-मुस्लमान दोनों थे। गांव के मुस्लमान हिदुओं को जाने नहीं देना चाह रहे थे। इसी बीच महीने बाद खबर आई कि चिनाव दरिया के किनारे बसे हिदुओं के गांवों में पठानों ने हिदुओं का कत्ल-ए-आम शुरू कर दिया है। यह खबर भी हमारे पिता जी के दोस्त करीम खान चिश्ती ने दी।
गांव गोलेकी में छोड़ आए हवेली और कारोबार
87 वर्षीय प्रो दरबारी लाल गहरी सांस लेते हुए कहते हैं मुझे पूरी तरह याद है 1948 में जनवरी का महीना रहा होगा। ठंड पड़ रही थी। परिवार ने फैसला किया कि जिंदा रहना है तो हमें हिंदुस्तान जाना ही होगा। फिर हमारा परिवार जिसमें कुल 11 सदस्य थे। जिसमें हम, हमारा भाई, पिता जी, चाचा और बहनें थी। गांव में दस हजार गज की पक्की हवेली, जमीन और कारोबार छोड़ कर कुछ जरूरत का सामान और जेवर और जो रुपये घर में रखे थे लेकर चल पड़े। पहले घोड़ा गाड़ी से गांव से जिला गुजरात पहुंचे।
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यहां एक दिन रुकने के बाद गुजरां वाला और फिर लाहौर पहुंचे। यहां एक दिन और एक रात रुकने के बाद पल्टन (फौज) ने हमारे परिवार और अन्य विस्थापितों को अमृतसर के हालगेट तक पहुंचाया। दरबारी लाल कहते हैं जब फौज की गाड़ी उन्हें अमृतसर के हाल गेट में छोड़ कर गई तो यहां मंजर ही कुछ और था। कोई रो रहा था तो कोई अपनो को तलाश रहा था। किसी के बाजू पर गहरे घाव थे तो किसी के पैरों में छाले पड़े थे। ऐसा मंजर उन्होंने पहली बार देखा था।
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वो कहते हैं कि अमृतसर के खालसा कॉलेज, हिंदू सभा कॉलज, पीबीएन स्कूल सहित अन्य धर्मशालाओं और स्कूलों में ठहराया गया था। पूर्व डिप्टी स्पीकर दरबारी लाल कहते हैं कि जिस पश्चिमी पंजाब के गावं गोलेकी में हमारे परिवार को लोग जमिंदारा कह कर बुलाते थे उसी परिवार को देश विभाजन के बाद शुरूआत के दिनों में मजदूरी करनी पड़ी थी। कुछ दिन धर्मशाला में रहे फिर एक कमरे का घर मिला फिर घीरे-घीरे परिवार में जो कुछ खोया था भगवान ने वह सब दोबार दे दिया।
पाकिस्तान ने दिया था लाशों का गिफ्ट
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पाकिस्तान के गुजारां वाला से आठ अगस्त को ही दंगा शुरू हो गया था। 1931 में बना अमृतसर रेलवे स्टेश देश विभाजन के बाद हुए दंगे का गवाह भी रहा है। प्रो: दरबारी लाल कहते हैं जो ट्रेन लाहौर से चल कर अमृतसर तक पहुंची थी उस ट्रेन के डिब्बों में लाशें ही लाशें थीं। वे कहते हैं कि पाकिस्तान के बन्नो से हिंदुओं, सिखों, जैनियां और बौधों को लेकर अमृतसर के लिए जो ट्रेन चली थी उसमें सवार भी लोगों का कत्ल कर दिया गया था। जीवित बचे थे तो बस ट्रेन के ड्राइवर और गार्ड वह भी इस लिए कि वो ट्रेन को लेकर अमृतसर तक पहुंच जाएं।
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इस ट्रेन के उपर दंगाइयों ने लिखा था 'गिफ्ट फ्रॉम पाकिस्तान'। इसके बाद लखनऊ और दिल्ली से मुस्लमानों को लेकर लाहौर जाने वाली ट्रेन को अमृतसर के 22 नंबर फाटक पर हिंदुओं और सिखों ने रोक उनका कत्ल कर दिया था। अंत में सरदार पटेल के समझाने पर दंगा खत्म हुआ। वे कहते हैं आज भी कुछ बुजुर्ग महिलाएं ऐसी है जिनके माता-पिता मुस्लमान थे और वो अपनी लड़कियों को छोड़ पाकिस्तान चले गए। बाद में उन लड़कियों ने धर्म परिवर्तन कर या सिख धर्म अपना लिया या हिंदू।
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उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंच चुकी 90 वर्षीय इंद्रावती कहती हैं कि उन्होंने अमृतसर को जलते हुए देखा है। 15 अगस्त को किस नजरिए से देखती हैं, के सवाल पर वह कहती हैं। इस दिन देश को अंग्रेजों से आजादी तो मिली लेकिन बलवा भी बहुत हुआ। हमारे मोहल्ले में तो नहीं पर कटरा खजाना में और रांझेवाली गली में, लाहौरी गेट में टोकरियां बाजार में मुस्लमानों ने लोगों के घरों को आग लगा दी थी। रांझे वाली गली में बम फटे थे। कई दिनों तक शहर जलता रहा। दंगे होते रहे। यह मंजर याद का आज भी रुह कांप जाती है।
मां चली गई पाकिस्तान बेटे ने अपना लिया सिख धर्म
शांती देवी कहती हैं जब पाकिस्तान बना था तब हमारी उम्र 13 साल थी। हमारा परिवार उधर के पंजाब के गांव हासावाला का रहने वाला था। जिला याद नहीं है। अब वह गांव पाकिस्तान में है। अपनी खेती बाड़ी नहीं थी। हमारा परिवार मिट्टी के बरतन बनाता था। गांव में दंगे हुए। बहुत से हिंदू- सिख मारे गए। हमारे पास दस खोते (गदधे) थे। हासा बाद में दो मंजिला मकान था। दंगा हुआ तो सब छोड़ कर रात को हमारा परिवार जिसमें जिसमें मामा, मासी और हमारी ससुराल के लोग भी थे।
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कुछ दूर पैदल चले फिर बैलगाड़ी में बैठ कर पहले गुजंरावाला और फिर लाहौर पहुंचे। यहां दो दिन रुकने के बाद फौज की गाड़ी से अमृतसर आए। यहा एक साल तक तंबुओं में रहने के बाद सरकार ने लोहगढ़ ने यह घर दिया। ये हैं तरनतारन जिले के गुरमंदिर सिंह। इनके जीवन की दास्तान भी भारत विभाजन की तरह है। सरहदी जिला तरनतारन के गुरुद्वारा खडूर साहिब के 80 वर्षीय सेवादार गुरमिंदर सिंह कहते हैं कि भारत विभाजन के साथ उनका जीवन भी दो हिस्सों में बंट गया।
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मुझे जन्म देने मां हमारे बहनों और भाइयों के साथ पाकिस्तान चलीं गई। वह अपने सात भाई बहनों में सबसे छोटे थे। नया मुल्क पाकिस्तान जाने की जल्दी में उनकी मां उन्हें यहीं छोड़ गई। अब वह यहीं गुरुघर में पले बढ़े और अब गुरु सिख बन गए हैं। गुरमिंदर सिंह कहते हैं उन्हें अपनी मां की याद तो आती है। करीब 15 साल पहले वह पाकिस्तान गए थे। मां की कब्र पर सजदा किया अपने भाइयों से मिला। लेकिन उनका देश तो भारत है और वह चाहते हैं कि उनकी उनका दम गुरुघर सेवा करते हुए निकले।
इबादतगाह जिसमें बने हैं मंदिर और गुरुद्वारे
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उल्लेखनीय है कि विभाजन के दौरान हुई हिंसा में करीब 10 लाख लोग मारे गए और करीब 1.45 करोड़ लोग अपना घर-बार छोड़कर शरणार्थी हो गए थे। ऐसे में पंजाब में इबादत गाहों में या तो गुरुद्वारे बना दिए गए या मंदिर। ऐसा ही एक गुरुद्वारा अमृतसर के हाथी गेट के अंदर है। गुरुद्वारा अजीत सर।
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यहां लगे बोर्ड पर गुरुमुखी में लिखा हुआ है कि गुरुद्वारा अजीतसर में 1947 में श्री गुरुग्रंथ साहिब का प्रकाश किया गया था। इसके पहले ग्रंथी गुरदयाल सिंह और मौजूदा ग्रंथी गुरबचन सिंह है। एसा ही इबादतगाह लोगढ़ में है जिसे देश विभाजन के बाद हनुमान जी का मंदिर बना दिया गया।