के. विक्रम राव का इंटरव्यू: पत्रकारिता कैसे जिया है?

आजकल के पत्रकार विक्रम रावजी के बारे में बहुत कम जानते हैं। लेकिन जब राष्ट्र बन रहा था, देश नए सिरे से अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहा था उस दौर में विक्रम रावजी का अतुलनीय और ऐतिहासिक योगदान रहा है।

Update:2020-10-26 21:07 IST
समाजवादी पार्टी की तरफ से मुकदमे वापसी के संदर्भ में पूछे गए सवाल पर लेख

के. विक्रम राव

श्रमजीवी पत्रकार के. विक्रम राव का इंटरव्यू संपादक और पूर्व सांसद संतोष भारतीय ने अपने ''लाउड इंडिया टीवी शो, स्टार जर्नलिस्ट्स ऑफ इंडिया'' के लिये लिया।

संतोष भारतीय: आजकल के पत्रकार विक्रम रावजी के बारे में बहुत कम जानते हैं। लेकिन जब राष्ट्र बन रहा था, देश नए सिरे से अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहा था उस दौर में विक्रम रावजी का अतुलनीय और ऐतिहासिक योगदान रहा है। वे किस परम्परा को जी रहे हैं?

आपको अंदाज नहीं होगा कि आजादी के आन्दोलन में किस तरह से ‘‘नेशनल हेराल्ड‘‘ लखनऊ, ने काम किया। ‘‘नेशनल हेराल्ड‘‘ के संपादक कौन थे?

मैं चाहता हूँ कि यह विक्रम रावजी बताएं, क्योंकि मुझे लगता है कि वे अपने पिता स्व. के. रामा राव (सांसद, संपादकाचार्य, स्वाधीनता सेनानी) के व्यक्तित्व को आपको समझाने के लिए वे ही सही अधिकारी हैं। मैं सीधे उनके के पास जाना चाहता हूँ।

विक्रम रावजी, पत्रकारिता में आप आये कैसे?

आपकी पत्रकारिता की यात्रा शुरू कैसे हुई?

के.विक्रम राव: संतोष भाई मैं बहुत आभारी हूँ कि आपने मुझे मौका दिया, अपने श्रोताओं और दर्शकों के सामने पेश होने का। ये अच्छा अवसर है, संवाद करने का अपने पुराने साथियों से, नये साथियों से। आपने जो अभी पत्रकारिता की चर्चा की, उसके बारे में कहना चाहता हूँ कि मैं आपके सामने एक रिपोर्टर के नाते तो पेश हो ही रहा हूँ, एक वोटर के नाते भी कुछ अपनी बात करूँगा। क्योंकि हमारे दोनों पहलू हैं आज।

पिताजी स्व. के. रामा राव भी रहे संपादक

आजाद भारत के गणराज्य में न केवल एक नागरिक और एक मतदाता बल्कि पेशे से पत्रकार। तो आप मेरा यह आग्रह स्वीकार करें।

मेरा बचपन गुजरा है पत्रकारिता के माहौल में, बल्कि मेरी माँ कहा करती थीं कि ‘‘मेरे बच्चों की रगों में खून नहीं स्याही बहती है।'' वे (श्रीमती के. सरसवाणी देवी) अंग्रेजी भाषा की कवियित्री और प्रवीण ज्योतिषाचार्या थीं।

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मेरे पिताजी स्व. के. रामा राव हिंदुस्तान के उन संपादकों में रहे, जो गाँधीजी के साथ थे, सेवाग्राम में रहे, जेल गए, अंग्रेजों के खिलाफ लड़े, वगैरह। वे सम्पादकीय लिखने पर जेल गए थे। लखनऊ जेल में, वहां के जालिम ब्रिटिश जेलर सीएस लेडली ने 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह के सत्याग्रहियों को इतना मारा, इतना पीटा, कई मनों आटा पिसवाया। सब मजदूर, किसान बापू के अनुयायी थे।

Jail or Jungle?सम्पादकीय लिखा था पिता ने

पिताजी ने सम्पादकीय लिखा था “Jail or Jungle?” कि लखनऊ की जेल है या जंगल? इसका प्रभारी जो अंग्रेज कलेक्टर है, वो अपने को लार्ड मानता है हिन्दुस्तान का? उस सम्पादकीय के पक्ष में हेराल्ड के चेयरमेन जवाहरलाल नेहरू ने अपील की कि वकील के लिए फीस देनी है। मुकदमा लड़ना है। आचार्य नरेंद्र देव, रफी अहमद किदवई, सीबी गुप्त, अजित प्रसाद जैन, ये सब लोग आगे थे। मोहनलाल सक्सेना, इस केस के साथ रहे और ‘‘हेराल्ड‘‘ की मदद की। सभी बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के सदस्य थे।

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तो बचपन मेरा गुजरा ऐसे माहौल में पुलिस का छापा नजरबाग के घर पर पड़ा। रातभर सर्चिंग हुई होना। पिताजी को कैद कर ले गये। अरूणा आसफ अली की चिट्ठियां पकड़ी गयीं हमारे यहां। उनमें लिखा था कार्यक्रम क्या होगा सन 42 के बाद? मैंने इतिहास का स्पर्श किया है, स्पंदन सुना है। इसका मुझे गर्व तो हेागा कि पत्रकारिता न तो मैंने सीखी है, न सड़क से उठायी है। मैंने चाक्षुष अनुभव किया है।

बचपन पुलिस का छापामारी, पितो को कैद, ऐसे माहौल में गुजरा

यहां एक चीज और बताऊं। सन 42 अगस्त में हम भाई बहनों को यह नहीं पता था कि रात को हमारे घर में चूल्हा जलेगा कि नहीं। पिताजी जेल में, बड़े भाई 18 साल के, लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्र थे। मोहल्ले के पंसारी ने उधार देना बंद कर दिया। उसका कहना था कि पिछला बकाया चुकाओ। अब सोचिये हम लोग आठ भाई बहन, क्या स्थिति थी? वो तो भला हो ''हेरल्ड'' के निदेशक रफी अहमद किदवई साहब का। वो हमारे परिवार के लिए ईश्वर थे।

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बाराबंकी (मसौली) के इस सुन्नी ने हमारा परिवार बचाया। रफी साहब ने अजीत प्रसाद जैन को राजा ओयल (लखीमपुर खीरी) के घर भेजा। वहां से पैसा लाकर बनिए का उधार चुकाया। तीसरे दिन घर में चूल्हा जला। तो ये हमारी अनुभूतियां हैं। इस सन्दर्भ में थोड़ा निजी होकर कहना चाहूंगा वर्षों बाद जब मेरी शादी की बात आयी, हम लोग आंध्र के ब्राह्मण हैं। पट्टाभि सीतारामैय्या, वीवी गिरि,नरसिम्हा राव आदि सब हमारे सजातीय हैं। हमारा बड़ा सीमित परिवार है, नियोगी ब्राह्मणें का। तो एक तेलुगु नियोगी आईसीएस की बेटी से मेरे विवाह की बात हुई। तब मैं टाइम्स ऑफ इंडिया, मुम्बई में एक अच्छे पद पर था। परन्तु मैंने मना कर दिया।

टाइम्स ऑफ इंडिया, मुम्बई में किया के.विक्रम राव ने काम

मैं आईसीएस परिवार का जामाता नहीं बनूंगा। मेरे बड़े भाई बहुत नाराज हुए। हम साधारण मध्यम वर्गीय परिवार के लोग हैं, इतने अमीर परिवार से सम्बन्ध आ रहा था। जिंदगी में सुख ही रहेगा। मैंने कहा, जी नहीं! जब मैं भूखा सोया था, जब ये अंग्रेज समर्थक अधिकारी भारतीयों पर लाठी, गोली चला रहे थे और उनके आईसीएस ऑफिसर आदेश दे रहे थे बापू के सत्याग्राहियों को मारने का सन 42 में हुआ। उस वक्त उस कन्या पिता भी ब्रिटिश राज के कलेक्टर थे। क्या जीवनभर मैं तादात्म्य महसूस कर पाऊंगा उनकी पुत्री से। क्या हममें और इनमें एक ही वेवलेंथ बना रहेगा?

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आपातकाल में जेल गए राव

मैंने गरीबी जाना है, वंचित रहा हूँ। मैं शादी कतई नहीं करूँगा। और मैंने जिससे शादी की, उनके पिता प्रोफेसर सीजी विश्वनाथन बीएचयू के प्रोफेसर थे। वे डा. राधाकृष्णन के सम्बन्धी थे। डॉ. सुधा राव एमबीबीएस हैं। जब मैं आपातकाल में जेल गया, उसने मेरे बच्चों की देखभाल की, शायद कोई और पत्नी होती तो मुझे छोड़कर चली जाती कि मैंने किस कमबख्त से शादी की । ये तो आजीवन जेल में ही रहता।

मेरी बेटी विनीता तब चार साल की थी, मुझसे तिहाड जेल में मिलने आई थी। आज इंजीनियर है रेलवे में। उसने वहां गार्ड से पूछा कि ''मेरे पिताजी घर कब लौटेंगे''?

गार्ड ने पूछा कि ''तुम कितने साल की हो?''

विनीता ने कहा : ''चार साल की।''

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तब गार्ड ने कहा कि तुम्हारे पिता या तो तुम्हारी शादी में आयेंगे या कभी नहीं।'' क्योंकि मैं और जॉर्ज के लोग तो सजा—ए— मौत की प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन ईश्वर की इच्छा थी। तानाशाह रायबरेली में हारी। हम लोग जेल से छूट के आ गए। मैं यह इसलिए बता रहा हूँ कि पत्रकारिता के जीवन में जरूरी है ऐसा अनुभव होना। केवल एक मासकॉम डिग्री लेना, या किसी बड़े राजनेता के साथ घूमना या प्रधानमंत्री, सीएम से सवाल जवाब पूछना ही सब नहीं है। मैं आपको बताऊं।

पत्रकारिता में क्या है, सिवाय संघर्ष के?

मासकॉम के एक लड़के से मुझे कभी—कभी क्यों शिकायत होती है? अच्छा है, ट्रेनिंग पा रहे हैं। मैं गया था एक विश्वविद्यालय में, सिलेक्शन में, मासकॉम पीजी कोर्स के लिए। मैंने एक लड़के से पूछा कि तुम्हारा कैरियर अच्छा है, तुम सिविल सर्विस में जाओ, अच्छा रहेगा। हर माता पिता यही चाहते है कि हमारा बेटा आईएएस हो। पत्रकारिता में क्या है, सिवाय संघर्ष के? पता नहीं वेज बोर्ड लागू हो या न हो।

उसने कहा: ''जी नहीं, मैं पत्रकार बनूंगा।'' मैंने कहा : ''क्यों भाई? क्या आकर्षण है?'' उसने कहा: ''मैं मुख्यमंत्री से सवाल पूछ सकता हूँ, समकक्ष होकर।'' मैंने उसके जाने के बाद कहा कि जो आदमी अभी से मुख्यमंत्री पर दबाव डालने की कोशिश करे, वो ईमानदार पत्रकारिता क्या करेगा?

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संतोष भारतीय : विक्रम रावजी मेरे दिमाग में एक सवाल आ रहा है कि आप जर्नलिज्म करते—करते अचानक ट्रेड यूनियन की तरफ कैसे चले गये? आप पत्रकारों के हकों के लिए लड़ने लगे। ये एक्टिव जर्नलिज्म से तो थोड़ा अलग रास्ता है। इसे क्यों अपनाया आपने?

जर्नलिज्म करते—करते अचानक ट्रेड यूनियन की तरफ कैसे चले गये?

के. विक्रम राव: हमारे नेता थे डॉ. लोहिया। एक बहुत अच्छा नारा उन्होंने हमको सिखाया था। जो बापू के समय से था : '' धरती को जो जोते बोये, धरती का वो राजा है, आजादी जिसका मतलब है, उसका यही तकाजा है।''

हम चाहते थे कि इंडियन फेडरेशन ऑफ वोर्किंग जर्नलिस्ट जिसके संस्थापकों में एक मेरे पिताजी भी नारा दे: ''अखबार को जो छापे बेचे, अखबार का वो मालिक है।''

आज क्या हो रहा हे? प्रबंधक बताता है संपादक से तुम क्या लिखोगे? क्या नहीं लिखोगे? आज एक संपादक के रूतबे के सामने एक विज्ञापनकर्मी का ज्यादा भारी हो गया है? हम इस चीज के खिलाफ रहते थे। अखबार कि आजादी एक लक्ष्मण रेखा है। उसके पार नहीं जाना चाहिए। तोड़ दिया गया उसको?

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मुझसे तो कहा गया था लखनऊ में तब मैं ब्यूरो प्रमुख था ''टाइम्स ऑफ इंडिया'' का कि विज्ञापन लाइए तथा 15 प्रतिशत कमीशन मिलेगा। मैंने कहा खबरदार जनरल मैनेजर साहब ये बात कहीं तो शर्म आनी चाहिए आपको। मैं एक रिपोर्टर हूँ। अगर मैं विज्ञापन लूंगा आपको, 15 प्रतिशत पैसा मिलेगा। तो मेरी कलम लिख पायेगी? आलोचना कर पायेगी?

संतोष भाई मैं जिस दिन बम्बई टाइम्स ऑफ इंडिया बम्बई में (अक्टूबर 2, बापू जयंती थी, 1962 में) भर्ती हुआ था। दूसरे दिन से बम्बई यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट ज्वाइन कर लिया। फिर मेरा ट्रांसफर किया गया। '' आई एम द मोस्ट ट्रांस्फर्ड एम्प्लोयी'' भारत के कई राज्यों में मेरा ट्रांसफर हो चुका है। मुझे अहमदाबाद भी ट्रांसफर किया गया, नया एडिशन था।

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वहां करोड़ों मुनाफा कमाते हुए गुजरात सन्देश, गुजरात समाचार तमाम अखबार थे और गुजराती लोग व्यापार में बड़े तेज होते हैं, मारवाड़ी के बाद । उनका बड़ा व्यापक व्यापार था। और जानते हैं आप बोनस के लिए क्या देते थे। कम से कम वाजिब हिस्सेदारी हो। बोनस के नाम पर एक स्टील का लोटा देते थे। मेरा दिल जल गया। हमें इसी दफ्तर में 20 प्रतिशत मिलता है, इनको बेचारों को गुजराती पत्रकारों को बस लोटा। क्योंकि ये गुजराती हैं, मैं अंग्रेजीदां हूँ। हमने कहा यूनियन बनेगी।

विवश होकर ट्रेड यूनियन बनाया, क्योंकि वह जरुरी था

यूनियन बनी और फिर आन्दोलन चला। मेरा दफ्तर था। वही यूनियन का ऑफिस भी था। साबरमती के संत ने हमें सिखाया था। मैंने क्या किया? आखिर क्यों बने ट्रेड यूनियन? कोई पापी बनता नहीं है, बनाया जाता है। और विवश होकर उन्होंने बनाया ट्रेड यूनियन, क्योंकि वह बहुत जरुरी था।

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आज क्या हो रहा है? पन्द्रह करोड़ रूपये का नुकसान दिखा रहे है आईएनएस वाले (मालिक लोग) कोरोना की वजह से छटनी कर रहे हैं। नुकसान हो गया, नहीं होना चाहिए। और कितने पत्रकार निकाले गए? कितने श्रमजीवी सड़क पर हैं? और कितनों ने आत्महत्या की नोएडा में। खबर छपेगी तो दिल नहीं जलेगा? ये मानवता का प्रश्न है, कोई ट्रेड यूनियन का नहीं, संतोष भाई।

अगला भाग कल.....................

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