नंदीग्राम का डरावना इतिहास: कोई साधारण गांव नहीं, 14 साल पहले के हीरो ममता-सुवेंदु

लेफ्ट शासन को आए एक साल भी नहीं बीते थे और नंदीग्राम में 14 मार्च 2007 को किसानों पर पुलिस फायरिंग हुई थी। जबरन जमीन अधिग्रहण के लिए पहुंचे ढाई हजार से ज्यादा पुलिस वालों ने अंधाधुंध गोलियां चलाई थीं। सरकारी आंकड़ों में 14 लोगों की मौत दर्ज हुई लेकिन हकीकत इससे ज्यादा रक्तरंजित थी।

Update:2021-03-14 17:49 IST
शुभेंदु अधिकारी के मुताबिक एक मामले को लेकर ममता कोलकाता हाई कोर्ट भी गई थीं लेकिन कोर्ट ने उनकी याचिका को खारिज कर दिया था।

कोलकाता: पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव को लेकर सभी राजनीतिक मुद्दे गरम हैं। बंगाल में नंदीग्राम विधानसभा सीट सबसे ज्यादा चर्चा में है क्योंकि कभी एक ही पार्टी में एक दूसरे के करीबी दिग्गज नेता अब इसी नंदीग्राम सीट से एक दूसरे के विरोध में चुनाव लड़ेंगे। ऐसे में नंदीग्राम के इतिहास के बारे में थोड़ी चर्चा जरूरी हो जाता है। नंदीग्राम को क्रांति स्थल भी कह कह सकते हैं। क्योंकि समाजवादी विचारक राम मनोहर लोहिया कहते थे कि जिंदा कौमें 5 साल तक इंतजार नहीं करतीं। यानी पांच साल चुनाव की प्रतीक्षा करने की बजाए पहले ही वह क्रांति का बिगुल बजा देती हैं। ऐसी ही एक क्रांति नंदीग्राम में हुई थी, जब लाल झंडे के खिलाफ जनता के गुस्से की अगुआई ममता बनर्जी ने ही की थी।

नंदीग्राम में 14 मार्च 2007 का दिन

बता दें कि लेफ्ट शासन को आए एक साल भी नहीं बीते थे और नंदीग्राम में 14 मार्च 2007 को किसानों पर पुलिस फायरिंग हुई थी। जबरन जमीन अधिग्रहण के लिए पहुंचे ढाई हजार से ज्यादा पुलिस वालों ने अंधाधुंध गोलियां चलाई थीं। सरकारी आंकड़ों में 14 लोगों की मौत दर्ज हुई लेकिन हकीकत इससे ज्यादा रक्तरंजित थी। कई लोगों की तो लाश भी नहीं मिली थी। इस घटना को 14 साल बीत चुके हैं और बंगाल में एक बार फिर नंदीग्राम में सबसे दिलचस्प सियासी जंग है। ममता बनर्जी का मुकाबला उसी सुवेंदु अधिकारी से है, जो नंदीग्राम आंदोलन के सूत्रधारों में से थे।

नंदीग्राम है ब्रैंडिंग विलेज

नंदीग्राम कोई साधारण गांव नहीं है। पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम एक ब्रैंड विलेज है। मतलब राजनैतिक ब्रैंडिंग। इसकी वजह भी है। ममता बनर्जी जब प्रतिपक्ष की राजनीति करती थीं उस समय सिंगूर मूवमेंट हुआ था और इस आंदोलन में मिक्स रिऐक्शन था। एक तरफ किसान ममता के साथ आ गए, जिनकी जमीन जा रही थी। दुनिया के कोने-कोने से बार-बार किसानों का ये अनुभव सामने आता रहा है और सिंगूर में भी यही दिखाई दिया। लेकिन साथ ही साथ सिंगूर में अर्बन यानी शहरी समाज नाराज भी था, क्योंकि उनको लग रहा था कि इससे डिइंडस्ट्रियलाइजेशन (उद्योगों का बंद होना) हो रहा है। इससे इंडस्ट्री नहीं आएगी और पश्चिम बंगाल के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है।

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नंदीग्राम में भारी विरोध के बाद टाटा चले गए

नंदीग्राम से ही ममता बनर्जी का राजनैतिक जीवन की शुरुआत हुई। भारी विरोध के बाद टाटा चले गए और नरेंद्र मोदी के गुजरात में नैनो का फैक्ट्री लगाया। लेकिन जब सिंगूर के बाद नंदीग्राम हुआ उसमें जब पुलिस फायरिंग में बहुत सारे लोगों की जान चली गई। इस घटना के बाद ममता बनर्जी के आंदोलन को और सफलता मिली। पुलिस फायरिंग के कारण ही नंदीग्राम ब्रैंडिंग बन गया। लंदन में एक बार लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स के एक अर्थशास्त्री ने मुझे बताया था कि ममता बनर्जी ने बंगाल के लोगों के असंतोष और गुस्से को भुनाने का नंदीग्राम के जरिए सफल राजनैतिक प्रयोग किया।

सुवेंदु अधिकारी ममता बनर्जी के मूवमेंट के सबसे बड़े सेनापति थे

नंदीग्राम में अभी क्या हुआ कि सुवेंदु अधिकारी ममता बनर्जी के मूवमेंट के सबसे बड़े सेनापति थे। वो बीजेपी में चले गए। सुवेंदु अधिकारी चाह रहे हैं कि नंदीग्राम में मुस्लिम समाज है करीब 30 प्रतिशत है और 70 प्रतिशत हिंदू हैं। उसमें अगर ध्रुवीकरण हो जाए तो ममता बनर्जी को मुस्लिम प्रेमी बनाकर हिंदू वोट को कंसॉलिडेट (ध्रुवीकरण) किया जाए तो उसका फायदा सुवेंदु अधिकारी को सीधे तौर पर मिलेगा। बीजेपी और सुवेंदु अधिकारी का यही कैलकुलेशन है।

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ममता बनर्जी ने सुवेंदु अधिकारी का चैलेंज स्वीकार किया

ममता बनर्जी ने सुवेंदु अधिकारी का चैलेंज स्वीकार किया है। बीजेपी पहले कह रही थी कि नंदीग्राम में ममता हार जाएंगी, इसलिए भवानीपुर सीट नहीं छोड़ेंगी। लेकिन अब सुवेंदु कह रहे हैं कि ममता भवानीपुर में हार जातीं इसलिए वह सीट छोड़ दी है। यह बात सही है कि भवानीपुर में आबादी के हिसाब से देखा जाए तो गैर बंगाली कम्युनिटी (गुजराती, मारवाड़ी, पंजाबी) ज्यादा है।

नंदीग्राम के लिए ममता बनर्जी का एक पॉजिटिव साइन भी है

भवानीपुर क्षेत्र में 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ा है और तृणमूल कांग्रेस का कम हुआ है। लेकिन उस वजह से ममता ने भवानीपुर को छोड़ दिया ये थोड़ा साधारण नजरिया होगा। ममता बनर्जी का एक पॉजिटिव साइन भी है, उनकी एक ताकत है कि कैसे किसी नेगेटिव सिचुएशन को वह पॉजिटिव सिचुएशन में बदल देती हैं। इस राजनीति में वह बहुत कामयाब होती हैं। वह बहुत प्रभावी हैं। इसीलिए ममता बनर्जी ने डिफेंसिव स्ट्रैटिजी को अफेंसिव स्ट्रैटिजी में बदल दिया है। एक कहावत है कि अफेंस इज द बेस्ट डिफेंस (आक्रमण ही सबसे अच्छा बचाव है)। नंदीग्राम में सबसे अच्छी कैंडिडेट ममता ही सकती थीं।

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ममता बनर्जी एक पैन बंगाल लीडर (पूरे बंगाल की) हैं

ममता बनर्जी एक पैन बंगाल लीडर (पूरे बंगाल की) हैं। उन पर आरोप लगते हैं कि वह मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करती हैं। लेकिन उनको मुस्लिम लीडर आप नहीं कह सकते। हिंदू हैं और बनर्जी हैं लेकिन उनको हिंदू लीडर भी नहीं कहते। जैसे नरेंद्र मोदी को पैन इंडिया लीडर कहते हैं, ओबीसी लीडर हम नहीं कहते हैं। नरेंद्र मोदी को हम हिंदू लीडर नहीं कहते हैं। जैसे मोदी पैन इंडिया लीडर हैं, वैसे ही ममता पैन बंगाल लीडर हैं। ममता के नंदीग्राम सीट पर लड़ने से ध्रुवीकरण की संभावना कम हो जाती है। अगर कोई स्थानीय नेता खड़ा होता तो ध्रुवीकरण की संभावना बढ़ जाती और हिंदू-मुस्लिम में चुनाव फंस जाता। ऐसा ममता बनर्जी और टीएमसी की सोच है।

सिंगूर और नंदीग्राम लोग भूल गए थे

ममता बनर्जी की दूसरी रणनीति यह है कि सिंगूर और नंदीग्राम लोग भूल गए थे। काफी साल बीत गए। अभी तो लेफ्ट-कांग्रेस का अलायंस है लेकिन उस वक्त कांग्रेस भी विपक्ष में थी और सीपीएम का शासन होने की वजह से आम जनता भी सरकार के स्टैंड के खिलाफ थी। नंदीग्राम में बीजेपी से लड़ाई है। पुरानी मेमरी याद दिलाने के लिए ममता बनर्जी ने यह रणनीति बनाई है। जो लोगों की स्मृति से चला गया था, खत्म हो गया था, उसको लोगों को फिर से स्मरण करा दिया।

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नंदीग्राम की करो या मरो (Do or die strategy) की यह रणनीति

ममता ने नंदीग्राम को ब्रैंड इक्विटी बनाकर बंगाल के लिए लड़ाई लड़ी थी और अभी बंगाल की बेटी के रूप में चुनावी अभियान को आगे बढ़ा रही हैं। इसे रिवाइवल ऑफ नंदीग्राम इश्यू (नंदीग्राम मुद्दे का दोबारा जिंदा होना) कहा जा सकता है। ये कोशिश अभी हो रही है। नंदीग्राम की करो या मरो (Do or die strategy) की यह रणनीति दोनों तरफ से है।

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